स्वधर्म - परधर्म


किस धर्म की शरण में जाना चाहिए?

प्रश्नकर्ता : सभी धर्म कहते हैं, 'मेरी शरण में आओ' तो जीव को किस की शरण में जाना चाहिए?

दादाश्री : सभी धर्मों में तत्त्व क्या है? 'स्वयं शुद्धात्मा है' ऐसा जानो। शुद्धात्मा वही कृष्ण है, शुद्धात्मा वही महावीर है। शुद्धात्मा ही भगवान है। सभी धर्मों को छोड़ मेरी शरण में आ जा ऐसा कहते है। अत: वह कहना चाहते हैं कि 'तू इस देहधर्म को छोड़ दे, मनोधर्म को छोड़ दे, इन्द्रियों के सब धर्म छोड़ दे और अपने स्वाभाविक धर्म में आ जा, आत्मधर्म में आ जा।' अब लोगों ने इसे उलटा समझ लिया। मेरे शरण को कृष्ण भगवान का शरण ऐसा समझ लिया और कृष्ण किसे समझते हैं? मुरलीवाले को। यह लगाने की दवाई पी गए, उसमें डॉक्टर का क्या दोष? ऐसे ही यह पी गए और भटक रहे हैं।

स्पष्टता स्वधर्म - परधर्म की...

प्रश्नकर्ता : स्वधर्म का अर्थ क्या है? हमारे वैष्णव कहते है ना कि स्वधर्म में रहो, परधर्म में मत जाओ।

दादाश्री : अपने लोग स्वधर्म का अर्थ ही नहीं समझे। वे समझ बैठे हैं कि वैष्णवधर्म स्वधर्म है और शैव या जैन या दूसरे सब धर्म परधर्म है। कृष्ण भगवान ने कहा है 'परधर्म भयावह' अत: लोग समझे कि वैष्णव धर्म के अतिरिक्त किसी भी धर्म का पालन करें तो वहाँ भय है। इसी प्रकार दूसरे धर्मवाले भी यही कहते हैं कि परधर्म अर्थात् दूसरे धर्मों में भय है। किंतु कोई स्वधर्म और परधर्म को समझे ही नहीं। परधर्म का अर्थ है देह का धर्म और स्वधर्म का अर्थ है आत्मा का धर्म, अपना धर्म। इस देह को नहलाना, धोना, एकादशी कराना ये सब देहधर्म है, परधर्म है। उसमें आत्मा का एक भी धर्म नहीं है, स्वधर्मं नहीं है। यह आत्मा ही हमारा स्वरूप है। कृष्ण भगवान ने कहा है स्वरूप के धर्म का पालन करे, वही स्वधर्म है और यह एकादशी करे या दूसरी क्रिया करे, वे सब परधर्म हैं, उसमें स्वरूप नहीं है।

'अपना आत्मा वही कृष्ण है' यहबात समझ में आए, इसकी पहचान हो तो ही स्वधर्म का पालन हो सकता है। जिसे अंदर के कृष्ण की पहचान हो गई, वही सच्चा वैष्णव है। आज तो कोई भी सच्चा वैष्णव नहीं है। 'वैष्णवजन तो तेने कहीए...' इस व्याख्यावाला एक भी वैष्णव ढूंढने पर नहीं मिलता।