गीता का रहस्य दो ही शब्दों में
कृष्ण भगवान जो कहना चाहते थे, वह दो शब्दों में ही कहना चाहते है। वह तो जो कृष्ण बना है, वही समझ सकता है और कह सकता है। आज 'हम' खुद कृष्ण बनकर आए हैं, तुझे तेरा जो कार्य सिद्ध करना है, कर ले।
कृष्ण भगवान क्या कहना चाहते हैं कि इन्सान जब मर जाता है तो कहते हैं, 'अंदरवाला चला गया'। तो वह क्या है? वह 'माल' है और जो यहाँ पड़ा है वह 'खोखा' है। इन आँखों से जो दिखता है, वह पेकिंग है और अंदर 'माल' है, मटिरिअल है। देर आर वेराइटिज ऑफ पेकिंग्ज। कोई आम का पेकिंग है, कोई गधे का पेकिंग है, कोई पुरुष का है या स्त्री का है। लेकिन अंदर 'माल' स्वच्छ एक जैसा सबमें है। पेकिंग तो कैसा भी हो, सड़ा हुआ भी हो, लेकिन व्यापारी पेकिंग की जाँच नहीं करता। वह तो 'माल' ठीक है या नहीं, वही देखता है। वैसे ही हमें भीतर 'माल' के दर्शन करने चाहिए।
कृष्ण भगवान कहते हैं, ''भीतर जो 'माल' है, वो ही मैं खुद हूँ, वो ही कृष्ण है, उसे पहचान, तभी तुम परिणाम को प्राप्त कर सकोगे।' बाकी लाख अवतार तक गीता के श्लोक गाओगे तो भी परिणाम नहीं आएगा। 'खोखा' और 'माल' इन दो शब्दों में वह सब है, जो कृष्ण भगवान कहना चाहते थे और इसी में कृष्ण भगवान का 'अंतर आशय' समा जाता है।
भगवान ने गीता में कहा है 'अभ्यास करना', आजकल तो गीता का इतना अभ्यास हो रहा है कि अभ्यास का ही अध्यास हो गया है। भगवान ने अध्यास छोडऩे के लिए अभ्यास करने को कहा था, तो अभ्यास का ही अध्यास हो गया?
प्रश्नकर्ता : गीता में कहा है कि पृथ्वी पर 'मैं' जन्म लेता हूँ। तो 'मैं' कौन ?
दादाश्री : उसे ही आत्मा कहते हैं। 'मैं' का अर्थ कृष्ण नहीं, 'मैं' का अर्थ है आत्मा। नियम ऐसा है कि जब जब पृथ्वी पर पाप का मार बढ़ता है तो कोई किसी महापुरुष का जन्म होता ही है। इसलिए प्रत्येक युग में महापुरुष जन्म लेते हैं।
प्रश्नकर्ता : कहते हैं कि कृष्ण भगवान ने रासलीला की थी, उसका क्या कारण था?
दादाश्री : भगवान ने रासलीला खेली ही नहीं। आपको किस ने कहा कि भगवान ने रासलीला खेली थी? ये सब तो दंतकथाएँ हैं। कृष्ण तो महान योगेश्वर थे। उन्हें रासलीला में खींचकर लोगों ने दुरुपयोग किया है।
कृष्ण की आराधना दो तरह से की जाती है। जो आरंभिक कक्षा में है, उन्हें बालकृष्ण के दर्शन करने चाहिए और जिसे वैकुंठ में जाना है, उसे योगेश्वर कृष्ण के दर्शन करने चाहिए।
आत्म सन्मुख कर
प्रश्नकर्ता : गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि तेरे मन को बुद्धि से विमुख कर मेरे सन्मुख कर, तो मैं तुझे दिखाई दूँगा।
दादाश्री : ठीक कहा है। संपूर्णतया यह सत्य वाक्य है। मन यदि बुद्धि को छोड़ दे और उनके सन्मुख अर्थात् आत्मा के सन्मुख हो तो कृष्ण भगवान के दर्शन हों। यह सत्य है। कृष्ण भगवान ने ठीक ही कहा है, लेकिन लोगों ने गलत समझा है। समझने में यदि गलती हो तो(परिणाम) उलटा हो जाता है। लगानेवाली दवाई पी जाए और कहे मुझे ऐसा हो गया! बुद्धि से विमुख हो ऐसा कहते हैं।
श्री कृष्ण ने उसे व्यभिचारिणी कहा!
चिंता और अहंकार
श्री कृष्ण कहते हैं : 'जीव तू क्यों चिंता करता है, कृष्ण को कहना हो वह करे' तोयह क्या कहते हैं, मालूम है? कृष्ण को क्या? वे तो जो कहना है, कहेंगे, लेकिन(हमें) यह संसार चलाना है, तो चिंता के कारखाने शुरू किए। लेकिन यह माल तो बिकता ही नहीं, कैसे बिकेगा? जहाँ बेचने जाता है, उसका तो अपना कारखाना होना ही है। इस संसार में एक ऐसा व्यक्ति ढूंढकर लाओ, जिसे चिंता नहीं होती।
एक ओर कहता है, 'श्री कृष्ण शरणम् मम:' और दूसरी और कहता है कि'हे कृष्ण! तू मेरी शरण में आ'। यदि कृष्ण की शरण ली है तो फिर चिंता क्यों? महावीर भगवान ने भी चिंता करने के लिए मना किया है। उन्होंने तो एक बार की गई चिंता का फल तिर्यंच गति बताया है। चिंता तो उच्चतम अहंकार है। 'मैंही सबका कत्र्ता हूँ' ऐसा तीव्र भाव रहता हो तो उसके फलस्वरूप चिंता उत्पन्न होती है।
भगवान का सच्चा भक्त तो चिंता होने पर भगवान से भी झगड़ता है। आप ना बोलते हैं तो मुझे चिंता क्यों होती है? जो भगवान से झगड़ता नहीं, वह सच्चा भक्त नहीं। यदि आपको कोई तकलीफ आती है तो आपके अंदर भगवान बैठा है, उसे हिलाईए। भगवान का सच्चा भक्त मिलना भी मुश्किल है। सब अपने अपने स्वार्थ में घूम रहे हैं।