ये जिन्दगी भी कितनी मासूम होती है, हमारे स्वप्नों से कितनी अनजान होती है,


ये जिन्दगी भी कितनी मासूम होती है,
हमारे स्वप्नों से कितनी अनजान होती है,
जब उत्पन्न होती है तो खुशहाल करती है,
अरु मौत पर हँस मनु का उपहास करती है॥

मानव से हँसने की भी कीमत वसूलती है,
कभी कभी तो वेपनाह रूला ही देती है,
छोटी छोटी बातों मे खुशी देती है,
पल भर में आँसू भी पोंछ लेती है ॥

कभी किसी चेहरे को मिटने नही देती,
हमारी यादों से यूँ ही हटने नहीं देती,
कुछ लोग भूल जाते हैं माँ बाप को भी,
कभी अनजान को आँखो से हिलने नही देती ॥

कभी इन्सान को थोडा सहारा देती है,
कभी लँगडे की बैशाखियाँ भी छीन लेती है,
कभी इन्सान को जीने के बहाने देती है,
कभी मौत की भी इक वजह छोड देती है॥

इन्सान को बना कठपुतली ऐसे नचाती है,
कभी जिन्दगी से जिन्दगी यूँ ही बनाती है,
कभी काल का बस रूप धर ऐसे घुमाती है,
कि जिन्दगी से जिन्दगी को बस मौत आती है॥

सबको फ़ँसाकर जिन्दगी आह्लाद करती है,
इठलाकर निर्माण और संहार करती है,
कभी नवजीवन की खुशी मे लीन होती है,
फ़िर भी मनुष्य से बस अनजान रहती है॥

ये जिन्दगी भी कितनी मासूम होती है ।