आज अनवरत पर आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी का यह आलेख पढ़ रहा था .मैं द्विवेदी जी के विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ क़ि आज-कल मॉस मीडिया में नित्य प्रति कर्मकांड को लेकर तरह- तरह की चर्चा और सुझाव आते रहते हैं जो क़ि पढ़े-लिखे समाज के लिए कोई शुभ संकेत नही है.
आजाद भारत के 64 वर्ष बीत चुके हैं और वैज्ञानिक जागरूकता अभी भी सोचनीय स्थिति में है। प्रति वर्ष देश की प्रगति आख्या के सरकारी शब्द अन्तर्मन को झकझोरते रहते हैं, परन्तु अन्धविश्वास एवं अज्ञानता के कई एक उदाहरण पूरी दुनिया के समक्ष हमारी प्रगति को अंगूठा दिखाते चलते हैं। मीडिया भी इसे खूब महत्व देती है?, मानो तर्क का यही आखिरी पड़ाव हो। यह इस महान देश के लिए भी कितनी असहज करने वाली बात है कि हम 2020 तक महाशक्ति बनने का दावा कर रहे हैं,समूची दुनिया को हम अंतरिक्ष विज्ञान ,अर्थव्यवस्था में चुनौती देने की स्थिति में हैं, वहीं अभी पिछले कुछ वर्ष पूर्व ही मुम्बई शहर के माहिम से बड़ोदरा के तीपल तट तक और बरेली से लेकर समूचे उत्तर भारत में लोगों का भारी हुजूम कहीं समुद्र के जल को मीठा होना चमत्कार मान रहा था या फिर हमारे देवी-देवता पुनः अपने भक्तों और श्रद्धालुओं के हाथों दुग्धपान कर रहे थे। इन घटनाओं को प्रबुद्ध समाज में न तों अनदेखी की जा सकती है और न ही यह उपहास का कारण है। यह गम्भीर चिन्तन एवं मनन का विषय है कि आज मीडिया के क्षेत्र में भी ऐसे जागरूक लोगों की जरूरत है,जो कि नीर-क्षीर का विवेचन कर समाचारों को सार गर्भित रूप में प्रस्तुत कर सकें । आज मनोरंजन के नाम पर जो कुछ परोसा जा रहा है वह सब कुछ ठीक है? यह अपने आप में एक सवाल है। इस महान देश पर आज सांस्कृतिक हमले का बिगुल बज चुका है और क्योंकि हम अभी तक सबको साक्षर नहीं बना पाये हैं, इसलिए यह सब जानकर भी अनजान बनने का नाटक कर रहे हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में हमारा सब कुछ दांव पर लगा है . अतः आम जन तक वैज्ञानिक जागरूकता के प्रसार के लिए यह आवश्यक है कि जन माध्यमों (मास मीडिया) के माध्यम से वैज्ञानिक संदेश जन-जन तक पहुंचाया जाये ,न की अवैज्ञानिक अवधारणा को मूल विज्ञान नीति 1958 में भारत के पहले प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने आम आदमी तक वैज्ञानिक मनोवृत्ति के प्रसार की पुरजोर वकालत की थी, किन्तु आज भी भारतीय परिप्रेक्ष्य में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया हैं। वर्तमान समय में जनमाध्यम (इलेक्ट्रानिक एवं प्रिण्ट मीडिया) वैज्ञानिक जागरूकता के नजरिये से अपने दायित्वों का निर्वहन नहीं कर रहे हैं। दशकों पूर्व जन माध्यमों में लुप्त हो चुकी अवैज्ञानिक खबरें आज मीडिया की सुर्खियों में हैं। भूत-प्रेत,शकुन-अपशकुन,व्याह शादी में कुण्डली मिलान,रोग-व्याधियों का देवी-देवताओं से सम्बन्ध,ग्रह-नक्षत्रों के दुष्प्रभाव,तान्त्रिकों का महाजाल एवं अन्याय पुरातन अवैज्ञानिक धारणायें आज इन जन माध्यमों के जरिए अपनी पुनर्वापसी कर रही हैं.
आज इलेक्ट्रानिक मीडिया में देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठत चैनलों पर जो कि सबसे तेज होने का दावा कर रहे हैं,वे नाग-नागिन,भूत-प्रेत,डाक बंगलों का रहस्य,सूर्य-चन्द्रग्रहण को अनिष्टकारी बताते हुए या तमाम ऐसी अवैज्ञानिक खबरों को 24 घण्टे प्रसारित करते हैं जिनका कि सच से दूर तक वास्ता नहीं होता। परन्तु इन चैनलों के संवाददाता अपने सीधे प्रसारण में इस विश्वास के साथ बात करते हैं कि कैसे नाग के हत्यारे की फोटो नागिन की आँखों में चस्पा होती है,कैसे सूर्य-चन्द्रग्रहण अमुक राशि वाले व्यक्तिओं के लिए घातक होगा या फिर कैसे डायन भेष बदलकर गांवों में आ रही है एवं उससे बचने का क्या उपाय है? आदि-आदि। निश्चित रूप से विज्ञान विधि से अप्रशिक्षित ये संवाददाता इस तरह से जाने-अनजाने इस देश को अंधे युग की ओर ले जा रहे हैं। मीडिया में हाल के महीनों से अवैज्ञानिक खबरों को प्रदर्शित करने की जैसे होड़ लगी थी । वह भी ऐसी खबरें जिनका कि कोई वैज्ञानिक सच नहीं है। जैसे-’चीते की खाल बरामद-चार बन्दी’, (बताते चलें कि भारत के जंगलों में चीते के विलुप्त हुए कई दशक बीत चले हैं), ’अनिष्टकारी होगा सूर्यग्रहण’, ’पवित्र मरियम की मूर्ति से सुगंधित इत्र का स्राव’, ’माहिम (मुंबई) में चमत्कार से मीठा हुआ समुद्र का पानी’, ’राची में हनुमान की मूर्ति ने आँखें तरेंरीं’, ’गणेश जी ने पुनः शुरू किया दुग्ध पान’, ’घरों पर जो ओ३म् नहीं लिखेगा-डायन मार डालेगी’,’तंत्र-मंत्रों से इलाज कराइए’ एवं ’इच्छाधारी नागिन’ ने पांच बार डसा’आदि आदि।ऐसी खबरें समाज को किस ओर ले जा रही हैं, यह गम्भीर चिंतन का विषय है। कब तक हम ऐसे कृत्यों से अपने आपको एवं पूरे समाज को महिमा मंडित करने का दावा कर पूरे राष्ट्र को कलंकित करते रहेगें? 21 सितम्बर 1995 को देव प्रतिमाओं ने अपने भक्तजनों के हाथों दुग्धपान किया , पूरे देश की तत्कालीन मीडिया ने उसे खूब प्रचारित किया। कन्याकुमारी से काश्मीर तक केवल यही खबर तैर रही थी। देश में हाई एलर्ट की स्थिति थी,तब राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग,भारत सरकार, के वैज्ञानिक दल ने जिसमें डॉ मनोज पटैरिया भी शामिल थे, इस चमत्कार के सच को जनता के सामने रखा था। वैज्ञानिक दल का मानना था कि वास्तव में प्रत्येक द्रव का अपना पृष्ठ तनाव होता है,जो कि द्रव के भीतर अणुओं के आपसी आकर्षण बल पर निर्भर करता है और इसका आकर्षण बल उस ओर भी होता है, जिस पदार्थ के सम्पर्क में आता है। देव प्रतिमाओं के दूध पीने में भी ऐसा ही हुआ है। जैसे ही दूध संगमरमर पर सीमेंट या अन्य चीजों से बनी मूर्तियों के सम्पर्क में आया वह तुरन्त मूर्तियों के सतह पर विसरित हो गया,जिससे श्रद्धालुओं को लगता है कि चम्मच से मूर्ति ने दूध खींच लिया है जबकि हकीकत में दूध की पतली सी धार नीचे से निकलती रहती है जो कि लोग विश्वास के कारण देख नहीं पाते। जब दूध में रंग,रोली मिलाकर देखा जाय तो रंगीन धार स्पष्ट रूप से दिखाई देगी। इस में कोई वास्तविकता नहीं है यह वैज्ञानिक नियमों के अन्तर्गत सामान्य प्रक्रिया है जिसे अज्ञानता के चलते लोग चमत्कार का नाम दे रहे हैं।इसमें सबसे दःखद पहलू यह है कि इस बात को हम अभी भी भारतीय जनता तक नहीं पहुंचा पाये हैं। आश्चर्य है कि अभी भी हमारी भोली-भाली जनता अज्ञानता के मोहपाश में जकड़ी है। वह अपनी कुंभकर्णी निद्रा का त्याग ही नहीं कर पा रही है या फिर हम वास्तव में अपने वैज्ञानिक संदेशों एवं उपलब्धियों को उन तक पहुंचा नहीं पा रहे हैं।
इसके साथ ही एक और चमत्कार ने तो कुछ वर्ष पूर्व देश को और भी शर्मसार किया था। पेयजल का मुद्दा जन स्वास्थ से जुड़ा है। मुम्बई म्युनिसपल कारपोरेशन एवं अन्य सरकारी संगठनों द्वारा की गयी घोषणा के बाद कि माहिम के तट पर तथाकथित मीठा जल स्वास्थ के लिए हानिकारक है एवं उसे पीने से तबियत खराब हो सकती है,लेकिन लोग थे कि मानते ही नहीं थे, पिये ही जा रहे थे। निश्चित रूप से यह चमत्कार नहीं है
वैज्ञानिकों ने इसकी पुष्टि कर दी कि यह बारिश का पानी हैं। संचार माध्यमों ने इसको अपनें तरीके से खूब प्रसारित भी किया . ऐसी अज्ञानता से देश अँधेरे में ही जायेगा. सवाल यह है कि हम दुनिया में अगली पंक्ति के नायक इसी अज्ञानता के बदौलत होगें। हमारी शिक्षा प्रणाली या फिर नेतृत्व देने वाले लोग , कौन इसका जवाब दे। महामहिम पूर्व राष्ट्रपति जी के 2020 तक महाशक्ति बनने के ख्वाब को हम क्या ऐसे ही पूरा करेंगे? जब तक विशाल आबादी वाले इस महान देश के जन-जन में वैज्ञानिक चेतना का समावेश नहीं होगा तब तक महाशक्ति बनने का दावा करना कितना बेमानी लगता है और जब हम 64 वर्ष बीतने के बाद भी तथाकथित जागरूकता और प्रगति की आकडे़बाजी में फॅसे है,भौतिक धरातल पर जागरूकता की यह हालत है तो कैसे भविष्य में त्वरित सुधार की उम्मीद कर सकते हैं। आजादी के वर्षो को गिनने से तो रिटायर होने का समय आता दिखता है,ज्ञान सीखने का नहीं। भविष्य की आहट बहुत भयावह है। यदि हमें दुनिया के देशों की कतार में आगे बैठना है तो ज्ञान की शक्ति चाहिए,वैज्ञानिक जागरूकता चाहिए न कि अन्ध विश्वास ।दुष्यंत कुमार जी की ये पंक्तिया सम्भवतःसटीक हैं कि-
कहाँ तो तय था चिरांगा हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।।
समाप्त.