
ये चित्र मेरा अपना लिया हुआ है !
आज फिर आप सबके लिए एक ग़ज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मैंने "मुफायलुन् मुफायलुन्" बहर में कहने की कोशिश की है ... बताइए ज़रूर कि आपको कैसी लगी मेरी ये कोशिश ...
ये जिंदगी, पता है क्या ?
न खत्म हो, सज़ा है क्या ?
है आँख क्यूँ भरी भरी ?
किसी ने कुछ कहा है क्या ?
दिखाते हो हरेक को ।
ज़ख़्म अभी हरा है क्या ?
नसीब फिर जला मेरा ।
कि राख में रखा है क्या ?
है रंग फिर उड़ा उड़ा ।
मेरी खबर सुना है क्या ?
सज़ा तो मैंने काट ली ।
बता दे अब खता है क्या ॥
रगड़ लो हाथ लाख तुम ।
लिखा है जो मिटा है क्या ?
समझ गया पढ़े बिना ।
कि खत में वो लिखा है क्या ॥
जो टूटे वो जुड़े नहीं ।
ज़ख़्म कभी भरा है क्या ?
खुदा है वो पता उसे ।
कि दिल की अब रज़ा है क्या ॥
ज़रा सा गम मिलाया है ।
ग़ज़ल में अब मज़ा है क्या ?
समझ सका न “सैल” ये ।अजीब सिलसिला है क्या ॥