हो कहीं भी जुल्मत हमें मंजूर नहीं है।


हो कहीं भी जुल्मत हमें मंजूर नहीं है।
हो हक की न दौलत तो मंजूर नहीं है।
जो भी मिला राह में,गले लगा लिया,
हो कहीं भी नफरत हमें मंजूर नहीं है।
हमारे सीने में रोशन है चिराग-ए-इंसानियत,
बिना वसूल की सियासत हमें मंजूर नहीं है।
जहां हुंकार भरी वहीं पे वक्त गया सिहर,
हर दौर के जालिम को दी है कडी टक्कर।
जब भी सितम का अंधेरा गहराया है,
लहू देके भी दीप जलाया है।
झूठी ताकत की बंदगी हमें मंजूर नहीं है,
झुके परचम-ए-सच्चाई ये मंजूर नहीं है।
दुनिया के बांटूं गम यही चाहत है मेरी,
सिर्फ खुद के लिए जीना मंजूर नहीं है।