हिंदी मेरी हिंदी


मैं हिंदी में पचास साल से ज्यादा समय से लिख रहा हूँ, लेकिन हिंदी मेरी मातृभाषा नहीं है। जिस परिवार में मेरा जन्म हुआ, वहाँ भोजपुरी बोली जाती थी और अब भी भोजपुरी ही बोली जाती है। अपने माता, पिता, भाई, भौजाई, भतीजों, भतीजियों – सभी से मैं भोजपुरी में ही बात करता था। आज भी भइया और भौजी शब्द मुझे भाई और भाभी से कुछ ज्यादा प्यारे लगते हैं लेकिन स्कूल में भोजपुरी नहीं पढ़ाई जाती थी। वहाँ हिंदी पढ़ाई जाती थी। बाद में मैंने पढ़ा कि भोजपुरी भी हिंदी है। फिर पढ़ा कि यह हिंदी की बोली है। यह भी जानने में आया कि यह हिंदी की उपभाषा है। अगर बोली किसी भाषा का वह रूप है जो कम पढ़े-लिखे लोगों द्वारा बरता जाता है, तो भाषा के इन दोनों रूपों में कुछ साम्य होना चाहिए। हिंदी यानी खड़ी बोली और भोजपुरी के बीच ऐसा कोई साम्य मेरे देखने में नहीं आया। यह भी पढ़ा कि भोजपुरी हिंदी की उपभाषा है। यह उपभाषा क्या चीज है, यह भी आज तक मेरी समझ में नहीं आया। उप का प्रयोग पद में कनिष्ठता बताने के लिए होता है, जैसे आयुक्त और उपायुक्त, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति आदि। लेकिन उपलेखक या उपगायक भी हो सकता है, इस बारे में मेरी जानकारी नहीं है।
मेरी मान्यता है कि अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली आदि की तरह भोजपुरी भी एक स्वतंत्र भाषा है। इन सभी भाषाओं में साहित्य रचना हुई है। अवधी, ब्रजभाषा, मैथिली आदि में लिखा हुआ साहित्य पांडुलिपियों में मिलता है और प्रकाशित हुआ है। इन भाषाओं में सशक्त साहित्य उपलब्ध है और दुर्भाग्यवश इन्हें हिंदी के नाम पर पढ़ाया जाता है। इन भाषा क्षेत्रों के बाहर के लोग इस साहित्य को ठीक से समझ नहीं पाते और कष्ट पाते हैं। मुझे मालूम नहीं कि भोजपुरी में लिखा हुआ पुराना साहित्य उपलब्ध है या नहीं। मुझे यह भी मालूम नहीं कि भोजपुरी में उत्कृष्ट साहित्य लिखा भी गया है या नहीं। कुछ जन साहित्य जरूर मिलता है। इधर कुछ अच्छी रचनाएँ भी देखने में आई हैं। लेकिन जो चीज सबसे ज्यादा उभर कर सामने आ रही है, वह है भोजपुरी भाषा की रक्षा का प्रयत्न और उसे एक स्वतंत्र तथा प्रतिष्ठित भाषा के रूप में मान्यता दिलाने का प्रयत्न। शायद कुछ विश्व भोजपुरी सम्मेलन भी हो चुके हैं। मुझे लगता है, इन प्रयासों के लिए काफी देर हो चुकी है।
स्कूल में पढ़ना शुरू किया, तो मेरे जीवन में भोजपुरी के लिए जगह कम होती गई और खड़ीबोली हिंदी (आगे इसे मैं सिर्फ हिंदी लिखूँगा) के लिए जगह बढ़ती गई। यह अनिवार्य था, क्योंकि भोजपुरी में पढ़ने को कुछ भी उपलब्ध नहीं था। मुझे जो कुछ पढ़ने को मिला, वह हिंदी में ही था। वही पढ़ा और उसी से सीखा। इसका नतीजा यह हुआ कि मेरी भोजपुरी पर हिंदी का असर बढ़ता चला गया। अब घरवालों से बात करते हुए मुझे भोजपुरी में हिंदी के शब्द मिलाने पड़ते थे, जैसे आजकल हिंदी में अंग्रेजी के शब्द मिलाए जा रहे हैं। धीरे-धीरे मेरी भोजपुरी की मिठास गायब होती गई। यहाँ तक कि बहुत-से शब्दों के भोजपुरी पर्याय भी याददाश्त से बाहर होते चले गए। भोजपुरी अब भी बोल और समझ लेता हूँ, लिखने का अवसर मिले तो लिख भी सकता हूँ। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि भोजपुरी अब मेरी भाषा नहीं रही।
मेरी तरह लाखों नहीं तो हजारों लोगों के जीवन से भोजपुरी धीरे-धीरे, चुपके-चुपके बाहर हो चुकी है। पर भोजपुरी अब भी जीवित है। भोजपुरी बोलनेवालों की संख्या अभी भी करोड़ों में होगी। ये कौन लोग हैं? वे कौन लोग हैं, जो आगे भी भोजपुरी को जीवित रखेंगे? प्रिय पाठक, अगर आप नाराज न हों, तो मैं निवेदन करना चाहूँगा कि इनमें से एक तिहाई लोग ऐसे हैं जिन पर हिंदी या अंग्रेजी का रंग चढ़ चुका है, लेकिन भोजपुरी जिनकी पारिवारिक आवश्यकता है। कुछ के लिए यह भावनात्मक आवश्यकता भी हो सकती है। पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि अगली दो पीढ़ियों में इन परिवारों में भोजपुरी समझनेवाला एक भी व्यक्ति नहीं रह जाएगा। इनके लिए भोजपुरी एक मृत भाषा हो जाएगी। धीरे-धीरे हिंदी भी इन परिवारों के लिए हिंदी भी एक मृत भाषा भी हो जाएगी। अंग्रेजी इनके सिर पर चढ़ कर बोलेगी।
और बाकी तीन चौथाई लोग? ये वे लोग हैं, जिनकी एकमात्र भाषा भोजपुरी है। मैं फिर दावे के साथ कहना चाहता हूँ, ये वे लोग हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से नहीं, पर आर्थिक और शैक्षिक दृष्टि से समय से पीछे हैं। ये जिन क्षेत्रों में रहते हैं, वहाँ आर्थिक विकास तेजी से होने लगेगा, तो इनके बच्चे भी अंग्रेजी माध्यम से पढ़ने लगेंगे। हमारी पीढ़ी के जेहन में पहले हिंदी घुसी, बाद में उसका पीछा करते हुई अंग्रेजी आई। ये बच्चे हिंदी का सुख नहीं जान पाएँगे, सीधे अंग्रेजी के बढ़ते हुए साम्राज्य में दाखिल हो जाएँगे। मेरा खयाल है, हिंदी क्षेत्र की अन्य सभी भाषाओं का हश्र यही होनेवाला है। मृत्यु इन्हें तेजी से अपनी ओर खींच रही है। धीरे-धीरे अन्य आंचलिक भाषाओं के साथ भी यही होनेवाला है। कहीं जल्दी, कहीं देर से। हम अंग्रेज नहीं बन पाएँगे, पर हमारी भाषा अंग्रेजी हो जाएगी। यह उस विकास का अनिवार्य अभिशाप है जिसमें केंद्रीकरण और आकार की दीर्घता केंद्रीय मूल्य हैं।
क्या भोजपुरी बच सकती थी? हाँ, जरूर। कल्पना कीजिए, भारत एक पूर्ण राजनीतिक इकाई न बना होता। हर भाषा का अपना एक अंचल होता। उसकी अपनी सरकार होती। वहाँ की पढ़ाई-लिखाई, उद्योग-धंधे सब वहाँ की अपनी भाषा में होते। तब भोजपुरी का अपना एक व्यक्तित्व होता। कोई भी भाषा एक पूर्ण और जीवंत इकाई होती है। हर भाषा में उच्चतम साहित्य लिखे जाने और ज्ञान-विज्ञान का विकास होने की पूरी संभावना होती है। लेकिन यह संभावना तभी चरितार्थ होती है, जब उस भाषा का अपना भूगोल और अपनी राजनीतिक-आर्थिक सत्ता हो। इनके अभाव में भाषाओं में कड़ी प्रतिद्वंदिता होती है और राजनीतिक तथा आर्थिक दृष्टि से मजबूत भाषा कमजोर भाषा को लील जाती है। भारत की राजनीतिक एकता कहिए या एकीकरण ने, जिसके लिए ब्रिटिश उपनिवेशवाद जिम्मेदार था, बहुत-सी भाषाओं को निष्प्राण और भविष्यहीन कर दिया। जिन भाषाओं को विकसित होने का मौका मिला, उन्हें इक्कीसवीं सदी का साम्राज्यवाद खा जाएगा।
यही यूरोप की अन्य भाषाओं, जैसे फ्रांसीसी, जर्मन और इटालवी, के साथ हुआ होता, अगर फ्रांस, जर्मनी और इटली ने अपनी-अपनी भाषाओं में आधुनिक जीवन को सिद्ध करने का प्रयत्न नहीं किया होता। जापान और चीन ने भी ऐसा ही किया। इसलिए इनकी अपनी भाषाएँ भी बची हुई हैं। इस मामले में भारत काफी पिछड़ गया है। उसने लोक भाषाओं की भरपूर उपेक्षा की और अंग्रेजी को तिलक की तरह अपने माथे पर आँक लिया। अब यह तिलक उसकी त्वचा का अंग हो चुका है। इसलिए सभी भारतीय भाषाएँ भविष्यहीन नजर आती हैं। मैं इस तथ्य पर गर्व कर सकता हूँ कि हिंदी ने मेरी भोजपुरी को मुझसे छीन लिया, पर एक दूसरी मुकम्मिल भाषा दी, जो भोजपुरी परिवार की ही भाषा है, उसी भाषा में मैंने पढ़ा और अपने को व्यक्त किया तथा मेरी रसोई भी उसी भाषा से चलती रही है। मेरा जन्म भारत के भाषाई दुर्भाग्य से सौ-पचास साल पहले हुआ और इसलिए मेरी मृत्यु भी मेरी इसी भाषा में होगी।

     राजकिशोर द्वारा लिखित