kuch sabda


व्यवसायिक
जगत में सबसे ज्यादा पतन हुआ है प्रेम का। हम इतने संवेदना हीन हो चुके
हैं कि सगे-संबंधियों से भी किसी लाभ की आशा में ही बात करते हैं। रिश्ते
अब प्रेम से नहीं, बैंक बैलेंस और सोशल स्टेटस देखकर तय किए जा रहे हैं।
ऐसे में कार्यस्थल पर अगर प्रेम ना हो तो आश्चर्य नहीं है।

कारपोरेट
भाषा में इसे प्रोफेशनल एटीट्यूड कहा जाता है। जहां सहयोगी से सिर्फ काम
का ही रिश्ता होता है। इस रिश्ते में अगर प्रेम का अंकुरण कर दिया जाए तो
संभव है कि काम का परिणाम उम्मीद से ज्यादा बेहतर आ सकता है। कई कंपनियां
अपने कर्मचारियों को सुविधाओं की बारिश में भिगो रही है लेकिन फिर भी
परिणाम दाएं-बाएं ही आ रहा है। सुविधाओं के साथ अगर आपसी संबंधों में प्रेम
भी बढ़ा लिया जाए तो फिर दफ्तर का काम सिर्फ नौकरी नहीं रह जाता, वो
कर्मचारी का अपना काम हो जाता है।

आपके साथ जो भी काम कर रहा है,
वो इंसान ही है। संवेदनाएं उसके स्वभाव में भी होंगी। आपको सिर्फ उन
संवेदनाओं का सम्मान ही तो करना है। प्रेम अपनेआप उपज जाएगा।

राम और
कृष्ण दोनों ही अवतार इस कला में माहिर थे। अपने सहयोगी के साथ प्रेम से
कैसे रहा जाए। हमारे द्वारा पूछा गया एक छोटा सा सवाल भी उसका दिल जीत सकता
है। रामचरित मानस के एक प्रसंग में चलते हैं। लंका पर कूच करने के लिए
वानरों की सेना तैयार है। सहयोग का वचन सिर्फ सुग्रीव ने दिया था। वानरसेना
सुग्रीव की आज्ञा से आयी थी। ये उनके लिए एक नौकरी की तरह ही था। लेकिन जब
वानर सेना राम के सामने खड़ी हुई तो यहां तुलसीदासजी ने लिखा है अस कपि एक
न सेना माहीं, राम कुसल जेहीं पूछी नाहीं।।

अर्थ है कि सेना में एक
भी वानर नहीं था जिसकी राम ने व्यक्तिगत रूप से कुशल ना पूछी हो। राम ने
इतनी बड़ी वानर सेना में एक-एक वानर से उसका हालचाल पूछा। यहीं से वानरों
में राम के प्रति आस्था जागी। ऐसे राजा कम ही होते हैं जो अपने अदने से
कर्मचारी से कभी उसका हालचाल पूछते हों। राम के इसी गुण ने वानरों में इस
युद्ध के लिए व्यक्तिगत लड़ाई का भाव भर दिया।