माँ The mother (Urdu Poetry Part 2)







हम बलाओं में कहीं घिरते हैं तो बेइख्तियार
‘ख़ैर हो बच्चे की‘ कहकर दर पे आ जाती है माँ


दूर हो जाता है जब आँखों से गोदी का पला
दिल को हाथों से पकड़कर घर को आ जाती है माँ


दूसरे ही दिन से फिर रहती है ख़त की मुन्तज़िर
दर पे आहट हो हवा से भी तो आ जाती है माँ


चाहे हम खुशियों में माँ को भूल जाएँ दोस्तो !
जब मुसीबत सर पे आती है तो याद आती है माँ


दूर हो जाती है सारी उम्र की उस दम थकन
ब्याह कर बेटे की जब घर में बहू लाती है माँ


छीन लेती है वही अक्सर सुकूने ज़िंदगी
प्यार से दुल्हन बनाकर जिसको घर लाती है माँ


हमने यह भी तो नहीं सोचा अलग होने के बाद
जब दिया ही कुछ नहीं हमने तो क्या खाती है माँ


ज़ब्त तो देखो कि इतनी बेरूख़ी के बावुजूद
बद्-दुआ देती है हरगिज़ और न पछताती है माँ


अल्लाह अल्लाह, भूलकर हर इक सितम को रात दिन
पोती पोते से शिकस्ता दिल को बहलाती है माँ


बेटा कितना ही बुरा हो, पर पड़ोसन के हुज़ूर
रोक कर जज़्बात को बेटे के गुन गाती है माँ


शादियाँ कर करके बच्चे जा बसे परदेस में
दिल ख़तों से और तस्वीरों से बहलाती है माँ


अपने सीने पर रखे है कायनाते ज़िंदगी
ये ज़मीं इस वास्ते ऐ दोस्त कहलाती है माँ


साल भर में या कभी हफ़्ते में जुमेरात को
ज़िंदगी भर का सिला इक फ़ातिहा पाती है माँ


गुमरही की गर्द जम जाए न मेरे चाँद पर
बारिशे ईमान में यूँ रोज़ नहलाती है माँ


अपने पहलू में लिटाकर रोज़ तोते की तरह
एक बारह, पाँच, चैदह हमको रटवाती है माँ


उम्र भर ग़ाफ़िल न होना मातमे शब्बीर से
रात दिन अपने अमल से हमको समझाती है माँ


मरतबा माँ का हो ज़ाहिर इसलिए फ़िरदौस से
अपने बच्चों के लिए पोशाक मंगवाती है माँ


याद आता है शबे आशूर को कड़ियल जवाँ
जब कभी उलझी हुई ज़ुल्फ़ों को सुलझाती है माँ


सबसे पहले जान देना फ़ातिमा के लाल पर
रात भर औनो मुहम्मद को ये समझाती है माँ


जब तलक ये हाथ हैं , हमशीर बेपरदा न हो
इक बहादुर बावफ़ा बेटे से फ़रमाती है माँ


नौजवाँ बेटा अगर दम तोड़ दे आग़ोश में
ज़िंदगी भर सर को दीवारों से टकराती है माँ


फ़ातिमा के लाल पर कुरबान करने के लिए
बाँध कर सेहरा जवाँ बेटे को ले आती है माँ


ख़ून में डूबे हुए आते हैं जब सेहरे के फूल
एक इक टुकड़े को अपने दिल से लिपटाती है माँ


लाशे क़ासिम पे कहा ज़िंदा रही तो आऊँगी
अब तो सूए शाम दुल्हन को ले जाती है माँ


लाश पर बेटे की पढ़ती है जवानी मरसिया
शुक्र का सज्दा इस आलम में बजा लाती है माँ


अल्लाह अल्लाह इत्तिहादे सब्र ए लैला व हुसैन
बाप ने खींची सिनाँ, सीने को सहलाती है माँ


ये बता सकती है हमको बस रबाबे ख़स्ता तन
किस तरह बिन दूध के बच्चे को बहलाती है माँ


भेजकर बच्चे को तीरों में सुकूने क़ल्ब से
फिर शहादत के लिए दामन को फैलाती है माँ


दे के अपने लाल को इस्लाम की आग़ोश में
गोद ख़ाली फिर सूए जन्नत पलट जाती है माँ


गर सुकूने ज़िंदगी घिर जाए फ़ौजे ज़ुल्म में
छोड़कर फ़िरदौस को मक़तल में आ जाती है माँ


शिम्र के ख़ंजर से या सूखे गले से पूछिए
‘माँ‘ इधर मुंह से निकलता है उधर आती है माँ


ऐसा लगता है किसी मक़्तल से अब भी वक्ते अस्र
इक बुरीदा सर से ‘प्यासा हूँ‘ सदा आती है माँ


अपने ग़म को भूलकर रोते हैं जो शब्बीर को
उनके अश्कों के लिए जन्नत से आ जाती है माँ


जिनको पाला था पराये घर पका कर रोटियाँ
उफ़ उन्हीं बच्चों पे इक दिन बोझ बन जाती है माँ


डिग्रियाँ दिलवाईं जिनको, अपने अरमाँ बेचकर
अब उन्हीं की बीवियों की झिड़कियाँ खाती है माँ


दश्ते गुरबत में तयम्मुम करके जलती रेत पर
ज़िंदगी की लाश को ज़ख्मों से कफ़नाती है माँ


बेकसी ऐसी हो, कि इक बूंद पानी भी न हो
आँसुओं पर फ़ातिहा बच्चों को दिलवाती है माँ


सब को देती है सुकूँ और ख़ुद ग़मों की धूप में
रफ़्ता रफ़्ता बर्फ़ की सूरत पिघल जाती है माँ


उम्र भर रखे रही सर पर ज़रूरत का पहाड़
थक गईं साँसें तो अब आराम फ़रमाती है माँ


जो ज़बाँ पर भी न आए, दिल में घुट कर रह गए
ऐसे कुछ अरमाँ अपने साथ ले जाती है माँ


जिस को पढ़ने के लिए बच्चों को फुर्सत ही नहीं
एक दिन वो अजनबी तारीख़ बन जाती है माँ


शायर - रज़ा सिरसवी, किताब- माँ


शब्दार्थ
मुंतज़िर-प्रतीक्षारत, ज़ब्त-क़ाबू , शिकस्ता दिल-टूटा हुआ दिल,
मरतबा-पद, हैसियत, रूतबा; औनो मुहम्मद- औन और मुहम्मद, इमाम हुसैन की बहन जनाबे ज़ैनब के बेटे ,
फ़ातिमा का लाल-इमाम हुसैन, हमशीर-बहन,
सिनाँ-भाला,
रबाब ए ख़स्ता तन-कमज़ोर बदन वाली रबाब (इमाम हुसैन की पत्नी)
सूए शाम-मुल्क शाम की दिशा की तरफ़,
इत्तिहादे सब्र ए लैला व हुसैन-इमाम हुसैन और उनकी पत्नी उम्मे लैला के सब्र का एक हो जाना
सूकूने क़ल्ब-दिल का सुकून, सदा-आवाज़, मक़्तल-क़त्ल किए जाने की जगह
दश्ते गुरबत-अजनबी रेगिस्तान, वक्ते अस्र-अस्र की नमाज़ के वक़्त

शिम्र-इमाम हुसैन का क़ातिल (वाक़या ए करबला);इस नज़्म में उम्मे लैला, रबाब और ज़ैनब जैसी उन पाक माँओं की कुरबानियों का भी ज़िक्र है जिनके बयान के लिए कई किताबें भी कम हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझे बिना इन शेरों का अर्थ नहीं समझा जा सकता। जो लोग इस नज़्म को सही तौर पर समझना चाहते हैं, उनके लिए ज़रूरी है कि वे ‘वाक़या ए करबला‘ में कुरबानी देने वालों के बारे में जानकारी हासिल करें।