तेरा "वजुद" मुझ में है "माँ"


मैं चुराकर लाई हुं तेरी वो तस्वीर जो हमारे साथ तूने खींचवाई थी मेरे परदेस जाने पर।


में चुराकर लाई हुं तेरे हाथों के वो रुमाल जिससे तूं अपना चहेरा पोंछा करती थी।


मैं चुराकर लाई हुं वो तेरे कपडे जो तुं पहना करती थी।


मैं चुराकर लाई हुं पानी का वो प्याला, जो तु हम सब से अलग छूपाए रख़ती थी।


मैं चुराकर लाई हुं वो बिस्तर, जिस पर तूं सोया करती थी।


मैं चुराकर लाई हुं कुछ रुपये जिस पर तेरे पान ख़ाई उँगलीयों के नशाँ हैं।


मैं चुराकर लाई हुं तेरे सुफ़ेद बाल, जिससे मैं तेरी चोटी बनाया करती थी।


जी चाहता है उन सब चीज़ों को चुरा लाउं जिस जिस को तेरी उँगलीयों ने छुआ है।


हर दिवार, तेरे बोये हुए पौधे,तेरी तसबीह , तेरे सज़द,तेरे ख़्वाब,तेरी दवाई, तेरी रज़ाई।


यहां तक की तेरी कलाई से उतारी गई वो, सुहागन चुडीयाँ, चुरा लाई हुं “माँ”।


घर आकर आईने के सामने अपने को तेरे कपडों में देख़ा तो,


मानों आईने के उस पार से तूं बोली, “बेटी कितनी यादोँ को समेटती रहोगी?


मैं तुझ ही में तो समाई हुई हुं।


“तुं ही तो मेरा वजुद है बेटी”