ग़ज़ल गायकी के सम्राट 'जगजीत सिंह' को विशेष श्रद्धॉंजलि


ग़ज़ल क्‍या होती है, यह समझ भी नहीं थी जब पहली बार जगजीत सिंह की मंत्रमुग्‍ध कर देने वाली आवाज़ सुनी थी। फिर सुनता रहा, सुनता रहा और जब ग़ज़ल कहना आरंभ किया, दिल ने कहा एक ग़ज़ल ऐसी कहनी है जिसे जगजीत सिंह अपनी आवाज़ से नवाज़ना स्‍वीकार करें। उस आवाज़ लायक कुछ न कह सका और एकाएक आवाज़ से जग जीतने वाले जगजीत ने यह जग छोड़ दिया। ब्रेन हैमरेज से अस्‍पताल में भर्ती थे लेकिन लगता था अभी कोई कारण नहीं है जगजीत के जाने का, वो और जियेंगे और फिर कुछ और सुनने को मिलेगा। बस यहीं आदमी और उपर वाले के फ़ैसले का अंतर होता है शायद। उसने वही किया जो उसे ठीक लगा। कल दिन भर जगजीत सिंह की गाई एक ग़ज़ल लौट-लौट कर ज़ेह्न में आ रही थी। बहुत तलाशा नेट पर, नहीं मिली। रुका नहीं गया और एक ग़ज़ल हुई।
आज जगजीत हमारे बीच देह-स्‍वरूप नहीं लेकिन स्‍वर-स्‍वरूप जिंदा हैं और उनके इस स्‍वर स्‍वरूप को समर्पित है यह ग़ज़ल।

आज फिर तू, कुछ नया दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी

अब मुझे रब से मिला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

नस्‍ल-ओ-मज्‍़हब के बखेड़ों से अलग मैं रह सकूँ

एक ऐसा आसरा दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

बंधनों के इस कफ़स में जी चुका इक उम्र मैं

इस से आज़ादी दिला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

जन्‍म से सोया हुआ हूँ, ख्‍़वाब सारे जी चुका

नींद से मुझको उठा दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

छोड़कर मिट्टी चला हूँ, पूछता हूँ बस यही

क्‍यूँ मिली मिट्टी, बता दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

साथ जितना था हमारा, कट गया, जैसा कटा

आज ख़ुश हो कर, विदा दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

सोचना क्‍या वक्‍ते रुख्‍़सत, क्‍या मिला, क्‍या खो गया

भू जा, सब कुछ भुला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

जा रहा हूँ, छोड़कर रिश्‍ते कई ऑंसू भरे

दे सके तो हौसला दे जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।

उम्र भर भटका मगर, मंजि़ल न 'राही' को मिली

आज मंजि़ल का पता दे, जि़ंदगी, ऐ जि़ंदगी।